Friday, January 23, 2009

Thus Spake Osho (July 16,2008)

ओशो: “ शिक्षा और विद्रोह ” किताब से -

" क्या यह नहीं हो सकता कि गणित कोई इसलिए सीखे और सिखाया जाए कि गणित सीखना उसका आनन्द है? क्या यह नहीं हो सकता कि कोई काव्य इसलिए सीखे कि काव्य उसका आनन्द है? और रोज़ अपने को अतिक्रमण करने के लिए आगे बढ़ता चला जाए कि कल मैं जहाँ था, और कल के सूरज ने जहाँ मुझे छोडा था, आज का उगता सूरज मुझे वहाँ न पाए? मैं आगे निकल जाऊँ। अपने से ही रोज़-रोज़ स्वयं को अतिक्रमण और ट्रन्सेन्ड करता जाऊँ, क्या यह नहीं हो सकता है? क्या इस भाँति की गैर-प्रतिस्पर्धी शिक्षा नहीं हो सकती?......... "

क्या हो सकती है???

(July 16, 2008)

Vishvaas (Dec23, 2008)

विश्वास

मैं... एक आर्य समाजी! अंधविश्वास, मूर्तिपूजा और पाखण्ड चिड़ने वाला।
पर किस 'विश्वास' को अंधविश्वास कहते हैं, कभी कभी दुविधा में पड़ जाता हूँ।
एक उदहरण -
एक डर, असफलता का, हाल ही में मुझ पर हावी हो गया था। जानता था कर्मफल का नियम। मेरे कर्म ही सफलता या असफलता का फल बनकर आएँगे। फिर भी उस डर से जीत नहीं पा रहा था। असफलता निश्चित लग रही थी।
मेरा किसी लोकल देवी-देवता में विश्वास नहीं, मेरे माता-पिता का बहुत है। वे आर्यसमाजी नहीं हैं ना!
पर मेरा माता-पिता से बहुत प्यार है।
उन्होंने कुछ गेहूँ के दाने दिए मुझे जो वे किसी महामाया-माता से मुझे असफलता से बचाने वाले रक्षा कवच के रूपमें लाए थे।

मैंने सहर्ष लिए। उनके लिए।
असफलता का डर इन गेहूँ के दानों के प्रति आस्थावान तो नहीं बना रहा था, पर कोई प्रतिक्रिया भी नहीं देने दे रहा था।
महामाया-माता के कहे अनुसार एक एक गेहूँ का दाना खाकर दिन बिताए।
परिणाम वाला दिन आया। असफल होने से बच गया। डर खत्म हुआ।
किसे धन्यवाद दूँ? कृतघ्न नहीं हूँ। मेरे लिए कृतज्ञता की भावना अपरिहार्य है।
किसे धन्यवाद दूँ? आर्य समाज वाले मेरे निराकार इश्वर को? या महामाया माता के उन गेहूँ के दानों को? या किसीको नहीं, कर्म फल ही तो है।

लेकिन इस बात को यहीं छोड़ देता हूँ। ज़्यादा विचार या पड़ताल नहीं करूँगा।
इस बार भी।
तर्कों पर चलने वाला उन ‘गेहूँ के दानों’ को कहीं और भी आज़माना चाहेगा।
पर नहीं करूँगा ऐसा।
इस बार भी।
बचपन की तरह।
बचपन में रात के समय पास वाले मोहल्ले के शमशान के पास से कभी अकेले गुज़रने की हिम्मत नहीं होती थी।पर अपने पिता का हाथ पकड़ कर उस गली से निडर होकर गुज़रा।
क्या सोचता था कि शमशान के भूत, जिनसे मैं डरता था, जब आएँगे तो मेरे पिता उन्हें मार कर भगा देंगें?

अब क्या बड़प्पन की मेरी अक्ल, जो भूतों के अस्तित्व को मानने से इनकार करती है, पिता की उस 'शक्ति' को गौण कर दे, जिसने मुझे अभय दिया था?

वो असफलता का डर, भूत था।
वो गेहूँ, पिता का साथ।
ये बड़प्पन, कर्मफल की मान्यता है।
ये गेहूँ के महत्त्व पर विचार करने से इनकार, उस बचपने में लौटने की मेरी इच्छा है।
या शायद, मेरा बचपना ही।

(Dec23, 2008)

Rickshaw Puller (Oct 3, 2008)

Presley, Rock star या Emo
कितना cool होता है ना
उनकी तरह बनना, करना या दिखना….
स्टेशन के पास 3-feet के rickshaw में सोते हुए
उस ग़रीब को देख कर मन किया
कि उसकी नकल करने जैसा uncool काम किया जाए
तो उस रात अपने पलंग पर
3-feet का दायरा बना
सिकुड़ कर सोने की कोशिश की
पर नहीं कर पाया
क्योंकि
ना मैं थका हुआ था
ना मेरा पेट खाली था…..