Sunday, July 28, 2013

ऊपर वाले की बात

ये लेख शुरू मेरी एकतरफा बात से होगा लेकिन इसका असली उद्देश्य एक दो तरफ़ा चर्चा का  है। विषय है 'ईश्वर'। ईश्वर कहें या अल्लाह या गॉड या अहुरा मज़्दा, ये विषय उसी सत्ता का है जो हम जीवों से परे है, ऊपर है। जिसके गुण अनेक धर्मों के प्रवर्तकों द्वारा समर्थित विचारों की तरह अनेक हैं, और कहीं कहीं परस्पर विरोधी भी हैं।
यहाँ गुणों की बात नहीं होगी बल्कि उनके हम जीवों पर होने वाले प्रभाव की होगी।
ये बात अधिकतर आस्तिकों सम्मत है की जीव ईश्वर से जुड़ा रहे और अपने आनंद का कारण ईश्वर को माने।
जीव ईश्वर से कैसा व्यवहार करे?
एक आस्तिक की मान्यता कुछ भी हो, असल जीवन में उससे ईश्वर का सम्बन्ध आँखों से नहीं दिखता। इस सम्बन्ध के लिए भी देखने वाले अपनी मान्यता बना लेते हैं। आस्तिक उसे देख अपनी खुदकी श्रद्धा को बढ़ाते हैं और नास्तिक उसे मूर्खता मानते हैं। इस सम्बन्ध को भौतिक विज्ञान की दृष्टि से नहीं देखा जा सकता।

एक प्रार्थना याद आती है मुझे:
हे सकल जगत के उत्पत्तिकर्ता समग्र ऐश्वर्य युक्त सभी सुखों के दाता परमेश्वर, आप कृपा करके हमारे सारे दुर्गुण, दुर्व्यसन, और दुखों को दूर कर दीजिये। और कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव, एवं पदार्थ हैं, वे सब हमें प्राप्त कराईये।

यहाँ एक आस्तिक ईश्वर से अपने गुणों (अच्छी आदतों) को बढ़ाने और दुर्गुणों (बुरी आदतों) को घटाने की प्रार्थना कर रहा है।

लेकिन क्या ये प्रार्थनाएँ सूनी जा रहीं हैं? क्या कहीं दिखता हैं इसका प्रमाण?
हाँ। अक्सर।

लेकिन कई आस्तिकों को अपने गुणों को न बचाते हुए और दुर्गुणों में गिरते हुए भी देखा गया है!
नीचे दिए इन दो उदाहरणों से बात बढ़ाते हैं।

एक अच्छी आदत वाले की बात:
एक युवक बड़ा ही फुर्तीला और कसरत व्यायाम से शरीर को स्वस्थ रखने वाला था। ईश्वर से प्रार्थना भी करता था की मैं ऐसा ही मेहनती बना रहूँ। लेकिन उसकी नौकरी ऐसी लगी की, उसे शरीर पर ध्यान देने का समय ही नहीं मिलता था। ऑफिस के चर्बी भरे से खाने से तो अब वो मोटा होने लगा था। काम की व्यस्तता में कैसे दिन, महीन और साल बीत गए पता ही नहीं चला। वो अब दिल के रोग से परेशान है। ईश्वर ने उसके शरीर पर ध्यान देने के लिए कुछ नहीं किया। प्रार्थना निरर्थक गयी!

एक बुरी आदत वाले की बात:
एक आदमी शौक में शुरू के गयी सिगरेट के आदत से कई सालों से परेशान था। उसे पता था की इस तरह वो कैंसर की ओर बढ़ रहा था। वो ईश्वर से प्रार्थना करता था की हे ईश्वर मेरी ये लत छूट जाए। पर न ये लत छूटी न कैंसर का खतरा टला। आज कैंसर ने ही उसकी सिगरेट की आदत छुड़ाई। ईश्वर ने इसे भी सिगरेट से दूर रहने के लिए कुछ नहीं किया? प्रार्थना निरर्थक गयी!

अरे! यहाँ ईश्वर ने सहायता क्यों नहीं की? क्यों वो आस्तिक गुणी से पापी हो गए?

कर्मफल के कारण?
या इसलिए की ईश्वर हमारे कामों में दखल नहीं देता, फ्री विल?

पहला व्यक्ति अगर प्रार्थना के अलावा या बजाय, रोज़ 20 मिनट का समय कसरत  निकालता और चर्बी के खाने से दूर रहता, तो शायद उसे ये दिल का रोग नहीं मिलता।
दूसरा व्यक्ति अगर कोई नशा मुक्ति थेरेपी लेता और निकोटीन च्युइंग गम की मदद लेता, तो अपनी इच्छा शक्ति से सिगरेट छोड़ सकता था। कैंसर से बच सकता था।

चाहे प्रार्थना हो या न हो, काम पुरुषार्थ ही आया। मनुष्य का खुद का परिश्रम।

फिर ईश्वर कब काम आया?

इस लेख का विषय ये ही है - हमारे जीवन में ईश्वर की भूमिका।

जब सब कुछ हमें ही करना है और भोगना है, तो ईश्वर से नाता रखने का कोई अर्थ है?
और हम देखते हैं की दुनिया में आस्तिक ही नहीं, नास्तिक भी पनप रहे हैं। ईश्वर से सम्बन्ध के बिना ही।

हम कैसा सम्बन्ध रखें ईश्वर से? या रखें भी या नहीं?

Wednesday, July 3, 2013

दक्षिण भारत के एक गाँव की यात्रा

मैं उत्तर भारत के राजस्थान का रहने वाला हूँ। मैंने अपने जीवन में कई गाँव और खेत देखें हैं। कुछ सौ से कई हज़ार की जनसँख्या वाले गाँव, जहाँ गेहूं के, बाजरे के, चावल के, सरसों के खेत लहलहाते रहते हैं। दूर दूर तक फैले हरे भरे खेत। फसल की हरी चादर के बीच में कभी बरगद, कभी बबूल, और तो कभी नीम के पेड़ सीना तान कर खड़े रहते हैं, जैसे कह रहे हों कि हम इस खेत के रखवाले हैं। ऐसे गाँव और खेत कई जगह देखे, जैसे जयपुर में, कानपूर में, बनारस में।

लेकिन दक्षिण भारत के गाँव और खेत नहीं देखे कभी। मेरी  इच्छा है दक्षिण की ग्रामीण संस्कृति देखने की। कैसे होंगे ये गाँव। चलिए मैं आपको एक ऐसे ही गाँव की यात्रा पर ले जाता हूँ। दक्षिण का एक ऐसा गाँव जो मेरे ख़यालों में है। मेरी कल्पना का एक गाँव।

शहर से बाहर निकलते ही उस गाँव की महक मिलने लगती है। कंक्रीट के जंगल से निकल कर हम प्रकृति की गोद में उतरने लगते हैं। सड़क किनारे कतार में खड़े हरे भरे पेड़ मानो मेरा स्वागत कर रहे हैं। मेन रोड से निकल एक छोटे रास्ते पर चल पड़ता हूँ उस गाँव की ओर। भेड़ों का वो झुण्ड आगे बसी आबादी संकेत दे रहा है। पर अब तो कुछ और दिखाई नहीं दे रहा। दूर दूर तक सिर्फ हरे भरे लहलहाते खेत ही दिख रहे हैं। इतनी ऊंची फसल कभी नहीं देखी। शायद मकई के खेत हैं। ऊपर आसमान भी कितना साफ़ है, धुप बिलकुल नहीं चुभ रही है। ये दृश्य कितना मरोरम है। जैसे स्वर्ग की एक झांकी हो।
चलिए आगे चलते हैं।
अरे! कोका कोला की दूकान यहाँ भी। बिस्किट, टॉफ़ी, चाय आदि सब है इस छोटी सी दूकान में। मैं दूकानदार की भाषा नहीं समझ पा रहा लेकिन कुछ इशारों और मुस्कान से दोनों ऐसी वार्ता की जैसे हमेशा से बात करते आये हों। उसने बताया की आगे बस्ती के पीछे एक मेला लगा है आज। अरे वाह। बड़े सही मौके पर आया मैं आज। गाँव का वो मेल भी देख लूँगा, लेकिन पहले बसावट के पास जा लोगों को और उनके घरों को देखना चाहता हूँ।
वाह। कितनी सुन्दर रंगोली बना रही है ये स्त्री अपने घर की चौखट पर। ये छोटी सी गोल झोंपड़ी जिसके ऊपर कोन के आकार की छत है, कितनी साफ़ सुथरी है। अपने माता के चारों तरफ खेलते ये बच्चे, रंगोली से दूर दूर ही हैं। रंगोली बिगाड़ी तो माँ बहुत डांटेगी।
लगता है खेत से मेहनत कर अभी अभी लौटा है ये पुरुष। परिवार को देख मन ही मन संतुष्टि का रस पी, वो कोने में बंधी गाय को चारा डाल रहा है। सिर हिला हिला कर गाय भी एक माँ की तरह उसपर अपना स्नेह लुटा रही है, जैसे सुबह से उसका इंतज़ार कर रही थी।
इन सभी लोगों के कपड़ो में शहर के रंग दिख रहे हैं। पुरुष और बच्चे धोती आदि के बजाय, पेंट शर्ट में हैं लेकिन महिलायें पारंपरिक साड़ी और गजरे लगाये हुए हैं। इनके ये गहने आडम्बर नहीं बल्कि शुद्ध सौंदर्य के साधन लग रहे हैं।
खाना? बड़े स्वादिष्ट चावल और रसम परोसे गए हैं मुझे। इस प्रांत में ही उगने वाली ये सब्ज़ी भी लाजवाब है। लेकिन मैंने तो सोचा था की केले के पत्ते पर खाना मिलेगा, यहाँ तो स्टील की प्लेट है। शायद मेरे लिए ये लिहाज़ किया जा रहा है।
अभी ज़्यादा नहीं खाऊंगा। मेले में पकवान भी तो खाने हैं। मेले में लगा वो ऊँचा झूला तो यहीं से दिख रहा है।
मेला दूर नहीं है। चलो पैदल ही चलते हैं।
ये कमाल है! इस गाँव की कच्ची सड़कों पर हीरो होंडा तो दौड़ रही है लेकिन पीने का पानी आज भी कुँए से निकाला जाता है। कुए से पानी निकलने में पुरुष भी महिलाओं की मदद कर रहे हैं।
ये गाँव की स्कूल आ गई। बच्चों की छुट्टी के बाद कितना सूना सूना सा लग रहा है ये ज्ञान का केंद्र। आओ आगे मेला आने वाला ही है।
कितना सुन्दर मदिर है ये। छोटा सा, लेकिन पवित्रता और शांति बिखेरता ये आस्था का मंच। इसके ऊपर लगा लाल झंडा कैसा मदमस्त लहरा रहा है।
लो मेला भी आ गया। कितना टिपिकल रंग बिरंगा मेला है ये। झूले हैं, खिलौने हैं, पकवान हैं, ज़रूरत के सामान जैसे बर्तन, मसाले, औज़ार, आदि की दुकाने हैं, और लोगों के चेहरों पर मुस्कान है। कभी देखी है मिटटी से बनी गाय?  ये मिटटी का खिलौना तो मैं ज़रूर लेकर जाऊंगा।
तमाशे, झूले, और पकवानो का आनंद लेने के बाद अब वापस लौटने का समय आ गया है।
इस गाँव ने दिल को छू लिया है।
एक बार फिर लौटूंगा यहाँ, लेकिन कुछ दिन रुकने के लिए। कुछ और साँसे लेने के लिए, इस सुन्दर गाँव में।
चलोगे मेरे साथ?


Monday, June 3, 2013

धन्यवाद

धन्यवाद 

एक दिन:

हे प्रभु। आज जब मैं बहुत खुश हूँ, मेरे पास जीवन की अधिकतम खुशियाँ हैं, और मैं उनको महसूस कर पा रहा हूँ, तो आपको धन्यवाद देता हूँ, इस मोक्ष से अनुभव के लिए। ये समय चाहे एक मिनट का हो या एक दिन का या कुछ महीनों का, जैसे की अब, अपने में सम्पूर्ण है। सामने दिखती हुई कमी भी पूरेपन का अहसास कराती है। इस स्वर्गीय समय के लिए आपको बहुत बहुत धन्यवाद।

किसी और दिन:

हे प्रभु। आज जब मैं बहुत दुखी हूँ,  लाचार सब कुछ काबू से बाहर होता देख रहा हूँ, और सबको अपना दुश्मन समझ रहा हूँ, तो फिर भी आपको धन्यवाद देता हूँ। ये समय चाहे एक मिनट का ही हो, मुझे, मेरे जीवन को एक बार में ही अधुरा कर देता है। जानता हूँ की मेरी हालत कईयों से अच्छी है, लेकिन 'स्व' तो अथाह कुआँ बन गया है और अपनी हालत सबसे बुरी ही मान रहा है। इस पीड़ा से भरे समय के लिए भी आपको बहुत बहुत धन्यवाद।

एक और दिन:
हे प्रभु। आज तो एक आम दिन है। सुबह शुरू हुई मेरी और मेरे परिवार की गाड़ी ठीक से चल रही है। आज का समय न स्वर्गीय है, न नरकीय। आज आम है। बहुत ख़ुशी वाले दिन और बहुत दुःख वाले दिन, मेरे जीवन अनुभव को पूरा करते हैं, उसमे सारे रंग भरते हैं। इस आम समय और मेरे रंगीले जीवन के लिए... धन्यवाद।

Monday, May 27, 2013

रूप बदलते "मेले" - भाग-2

मुझे फीडबैक मिला की इस लेख के भाग-1 का आशय पाठकों को समझ नहीं आया। अच्छा है। मेरी नीति सफल रही। असल बात यूँ ही बता देता तो शायद पाठक भूल भी जाता। लेख का निष्कर्ष पाठक खुद निकाले तो असली आशय पर उसका पूरा ध्यान जायेगा, ऐसी आशा है। अब भाग-2 में, मैं इस लेख का मूल आशय बता रहा हूँ। आशा  है ये आपके समय और मंथन के लायक हो:

इस लेख का उद्द्येश्य मनुष्य जीवन की 'मेले' नाम की एक सामाजिक घटना का वर्णन करना नहीं, बल्कि मनुष्य की प्रकृति के कुछ उजले गुण बतलाने की है। ये गुण हैं - सकारात्मक सोच, वर्तमान में जीना, और जो नहीं है उसका दुःख छोड़, जो है उसकी सराहना करते हुए प्रयास करते रहने की कला।

ये सकारात्मक सोच ही है की एक व्यक्ति एम्यूजमेंट पार्क को मेले का एक अलग रूप समझ, वर्तमान के अविष्कारों की सराहना करता है, कल और आज को जोड़ती मानव प्रतिभा की प्रशंसा करता है, और आज को भरपूर जीता है। मेला तो एक उदहारण है, रोज़मर्रा की हर एक चीज़ 'ओल्ड' के ही नहीं 'न्यू' के भी 'गोल्ड' होने की पुष्टि करती है।

Sunday, May 26, 2013

रूप बदलते "मेले" - भाग-1

बीते ज़माने की खासियत थे मेले। झूले, खिलौने, स्वादिष्ट पकवान, खेल और रौशनी की सजावट। मेले में जाने का हर किसी को बहुत चाव रहता था।
ये भारत ही नहीं विश्व के अधिकतर देशों में होते रहे हैं। स्विट्ज़रलैंड, स्पेन, इंग्लैंड, इटली, आदि में सड़कों पर हँसते गाते ढोल बजाते ये कार्निवल मेले निकलते थे। चीन में नाचते ड्रैगन, जलती लालटेनें और गाते लोग मेले का एक अद्भुत रूप दिखाते थे। ये चकाचौंध में मैसूर के मेले से कम न होते थे।
और अब....
आज कहाँ वो मेले! अब कहाँ वो चाव मेले में जाने का, खाने का, खुला झूलने का, खिलौने खरीदने का!
छोटे शहरों में तो फिर भी कुछ एक मेले लग जाते हैं आज, लेकिन बड़े शहरों में तो जगह ही कहाँ ऐसा मेला लगाने की।
अरे लेकिन....
बड़े शहरों में तो आजकल "एम्यूजमेंट पार्क्स" होते हैं। वहाँ झूले होते हैं, चॉकलेट्स होतीं हैं, कैंडी होती है, खिलौने होते हैं। और ये सब एक छोटे से मॉल में!
ये आज के मेले ही तो हैं।
मेले कभी ख़त्म नहीं होंगे। लोग बदलेंगे, समय बदलेगा, ज़मीन बदलेगी, मौसम बदलेगा, नाम बदलेगा, लेकिन मेले ख़त्म नहीं होंगे।
बस रूप बदलते रहेंगे ये मेले....