Monday, May 27, 2013

रूप बदलते "मेले" - भाग-2

मुझे फीडबैक मिला की इस लेख के भाग-1 का आशय पाठकों को समझ नहीं आया। अच्छा है। मेरी नीति सफल रही। असल बात यूँ ही बता देता तो शायद पाठक भूल भी जाता। लेख का निष्कर्ष पाठक खुद निकाले तो असली आशय पर उसका पूरा ध्यान जायेगा, ऐसी आशा है। अब भाग-2 में, मैं इस लेख का मूल आशय बता रहा हूँ। आशा  है ये आपके समय और मंथन के लायक हो:

इस लेख का उद्द्येश्य मनुष्य जीवन की 'मेले' नाम की एक सामाजिक घटना का वर्णन करना नहीं, बल्कि मनुष्य की प्रकृति के कुछ उजले गुण बतलाने की है। ये गुण हैं - सकारात्मक सोच, वर्तमान में जीना, और जो नहीं है उसका दुःख छोड़, जो है उसकी सराहना करते हुए प्रयास करते रहने की कला।

ये सकारात्मक सोच ही है की एक व्यक्ति एम्यूजमेंट पार्क को मेले का एक अलग रूप समझ, वर्तमान के अविष्कारों की सराहना करता है, कल और आज को जोड़ती मानव प्रतिभा की प्रशंसा करता है, और आज को भरपूर जीता है। मेला तो एक उदहारण है, रोज़मर्रा की हर एक चीज़ 'ओल्ड' के ही नहीं 'न्यू' के भी 'गोल्ड' होने की पुष्टि करती है।

Sunday, May 26, 2013

रूप बदलते "मेले" - भाग-1

बीते ज़माने की खासियत थे मेले। झूले, खिलौने, स्वादिष्ट पकवान, खेल और रौशनी की सजावट। मेले में जाने का हर किसी को बहुत चाव रहता था।
ये भारत ही नहीं विश्व के अधिकतर देशों में होते रहे हैं। स्विट्ज़रलैंड, स्पेन, इंग्लैंड, इटली, आदि में सड़कों पर हँसते गाते ढोल बजाते ये कार्निवल मेले निकलते थे। चीन में नाचते ड्रैगन, जलती लालटेनें और गाते लोग मेले का एक अद्भुत रूप दिखाते थे। ये चकाचौंध में मैसूर के मेले से कम न होते थे।
और अब....
आज कहाँ वो मेले! अब कहाँ वो चाव मेले में जाने का, खाने का, खुला झूलने का, खिलौने खरीदने का!
छोटे शहरों में तो फिर भी कुछ एक मेले लग जाते हैं आज, लेकिन बड़े शहरों में तो जगह ही कहाँ ऐसा मेला लगाने की।
अरे लेकिन....
बड़े शहरों में तो आजकल "एम्यूजमेंट पार्क्स" होते हैं। वहाँ झूले होते हैं, चॉकलेट्स होतीं हैं, कैंडी होती है, खिलौने होते हैं। और ये सब एक छोटे से मॉल में!
ये आज के मेले ही तो हैं।
मेले कभी ख़त्म नहीं होंगे। लोग बदलेंगे, समय बदलेगा, ज़मीन बदलेगी, मौसम बदलेगा, नाम बदलेगा, लेकिन मेले ख़त्म नहीं होंगे।
बस रूप बदलते रहेंगे ये मेले....