मुझे फीडबैक मिला की इस लेख के भाग-1 का आशय पाठकों को समझ नहीं आया। अच्छा है। मेरी नीति सफल रही। असल बात यूँ ही बता देता तो शायद पाठक भूल भी जाता। लेख का निष्कर्ष पाठक खुद निकाले तो असली आशय पर उसका पूरा ध्यान जायेगा, ऐसी आशा है। अब भाग-2 में, मैं इस लेख का मूल आशय बता रहा हूँ। आशा है ये आपके समय और मंथन के लायक हो:
इस लेख का उद्द्येश्य मनुष्य जीवन की 'मेले' नाम की एक सामाजिक घटना का वर्णन करना नहीं, बल्कि मनुष्य की प्रकृति के कुछ उजले गुण बतलाने की है। ये गुण हैं - सकारात्मक सोच, वर्तमान में जीना, और जो नहीं है उसका दुःख छोड़, जो है उसकी सराहना करते हुए प्रयास करते रहने की कला।
ये सकारात्मक सोच ही है की एक व्यक्ति एम्यूजमेंट पार्क को मेले का एक अलग रूप समझ, वर्तमान के अविष्कारों की सराहना करता है, कल और आज को जोड़ती मानव प्रतिभा की प्रशंसा करता है, और आज को भरपूर जीता है। मेला तो एक उदहारण है, रोज़मर्रा की हर एक चीज़ 'ओल्ड' के ही नहीं 'न्यू' के भी 'गोल्ड' होने की पुष्टि करती है।
इस लेख का उद्द्येश्य मनुष्य जीवन की 'मेले' नाम की एक सामाजिक घटना का वर्णन करना नहीं, बल्कि मनुष्य की प्रकृति के कुछ उजले गुण बतलाने की है। ये गुण हैं - सकारात्मक सोच, वर्तमान में जीना, और जो नहीं है उसका दुःख छोड़, जो है उसकी सराहना करते हुए प्रयास करते रहने की कला।
ये सकारात्मक सोच ही है की एक व्यक्ति एम्यूजमेंट पार्क को मेले का एक अलग रूप समझ, वर्तमान के अविष्कारों की सराहना करता है, कल और आज को जोड़ती मानव प्रतिभा की प्रशंसा करता है, और आज को भरपूर जीता है। मेला तो एक उदहारण है, रोज़मर्रा की हर एक चीज़ 'ओल्ड' के ही नहीं 'न्यू' के भी 'गोल्ड' होने की पुष्टि करती है।