ये लेख शुरू मेरी एकतरफा बात से होगा लेकिन इसका असली उद्देश्य एक दो तरफ़ा चर्चा का है। विषय है 'ईश्वर'। ईश्वर कहें या अल्लाह या गॉड या अहुरा मज़्दा, ये विषय उसी सत्ता का है जो हम जीवों से परे है, ऊपर है। जिसके गुण अनेक धर्मों के प्रवर्तकों द्वारा समर्थित विचारों की तरह अनेक हैं, और कहीं कहीं परस्पर विरोधी भी हैं।
यहाँ गुणों की बात नहीं होगी बल्कि उनके हम जीवों पर होने वाले प्रभाव की होगी।
ये बात अधिकतर आस्तिकों सम्मत है की जीव ईश्वर से जुड़ा रहे और अपने आनंद का कारण ईश्वर को माने।
जीव ईश्वर से कैसा व्यवहार करे?
एक आस्तिक की मान्यता कुछ भी हो, असल जीवन में उससे ईश्वर का सम्बन्ध आँखों से नहीं दिखता। इस सम्बन्ध के लिए भी देखने वाले अपनी मान्यता बना लेते हैं। आस्तिक उसे देख अपनी खुदकी श्रद्धा को बढ़ाते हैं और नास्तिक उसे मूर्खता मानते हैं। इस सम्बन्ध को भौतिक विज्ञान की दृष्टि से नहीं देखा जा सकता।
एक प्रार्थना याद आती है मुझे:
हे सकल जगत के उत्पत्तिकर्ता समग्र ऐश्वर्य युक्त सभी सुखों के दाता परमेश्वर, आप कृपा करके हमारे सारे दुर्गुण, दुर्व्यसन, और दुखों को दूर कर दीजिये। और कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव, एवं पदार्थ हैं, वे सब हमें प्राप्त कराईये।
यहाँ एक आस्तिक ईश्वर से अपने गुणों (अच्छी आदतों) को बढ़ाने और दुर्गुणों (बुरी आदतों) को घटाने की प्रार्थना कर रहा है।
लेकिन क्या ये प्रार्थनाएँ सूनी जा रहीं हैं? क्या कहीं दिखता हैं इसका प्रमाण?
हाँ। अक्सर।
लेकिन कई आस्तिकों को अपने गुणों को न बचाते हुए और दुर्गुणों में गिरते हुए भी देखा गया है!
नीचे दिए इन दो उदाहरणों से बात बढ़ाते हैं।
एक अच्छी आदत वाले की बात:
एक युवक बड़ा ही फुर्तीला और कसरत व्यायाम से शरीर को स्वस्थ रखने वाला था। ईश्वर से प्रार्थना भी करता था की मैं ऐसा ही मेहनती बना रहूँ। लेकिन उसकी नौकरी ऐसी लगी की, उसे शरीर पर ध्यान देने का समय ही नहीं मिलता था। ऑफिस के चर्बी भरे से खाने से तो अब वो मोटा होने लगा था। काम की व्यस्तता में कैसे दिन, महीन और साल बीत गए पता ही नहीं चला। वो अब दिल के रोग से परेशान है। ईश्वर ने उसके शरीर पर ध्यान देने के लिए कुछ नहीं किया। प्रार्थना निरर्थक गयी!
एक बुरी आदत वाले की बात:
एक आदमी शौक में शुरू के गयी सिगरेट के आदत से कई सालों से परेशान था। उसे पता था की इस तरह वो कैंसर की ओर बढ़ रहा था। वो ईश्वर से प्रार्थना करता था की हे ईश्वर मेरी ये लत छूट जाए। पर न ये लत छूटी न कैंसर का खतरा टला। आज कैंसर ने ही उसकी सिगरेट की आदत छुड़ाई। ईश्वर ने इसे भी सिगरेट से दूर रहने के लिए कुछ नहीं किया? प्रार्थना निरर्थक गयी!
अरे! यहाँ ईश्वर ने सहायता क्यों नहीं की? क्यों वो आस्तिक गुणी से पापी हो गए?
कर्मफल के कारण?
या इसलिए की ईश्वर हमारे कामों में दखल नहीं देता, फ्री विल?
पहला व्यक्ति अगर प्रार्थना के अलावा या बजाय, रोज़ 20 मिनट का समय कसरत निकालता और चर्बी के खाने से दूर रहता, तो शायद उसे ये दिल का रोग नहीं मिलता।
दूसरा व्यक्ति अगर कोई नशा मुक्ति थेरेपी लेता और निकोटीन च्युइंग गम की मदद लेता, तो अपनी इच्छा शक्ति से सिगरेट छोड़ सकता था। कैंसर से बच सकता था।
चाहे प्रार्थना हो या न हो, काम पुरुषार्थ ही आया। मनुष्य का खुद का परिश्रम।
फिर ईश्वर कब काम आया?
इस लेख का विषय ये ही है - हमारे जीवन में ईश्वर की भूमिका।
जब सब कुछ हमें ही करना है और भोगना है, तो ईश्वर से नाता रखने का कोई अर्थ है?
और हम देखते हैं की दुनिया में आस्तिक ही नहीं, नास्तिक भी पनप रहे हैं। ईश्वर से सम्बन्ध के बिना ही।
हम कैसा सम्बन्ध रखें ईश्वर से? या रखें भी या नहीं?
यहाँ गुणों की बात नहीं होगी बल्कि उनके हम जीवों पर होने वाले प्रभाव की होगी।
ये बात अधिकतर आस्तिकों सम्मत है की जीव ईश्वर से जुड़ा रहे और अपने आनंद का कारण ईश्वर को माने।
जीव ईश्वर से कैसा व्यवहार करे?
एक आस्तिक की मान्यता कुछ भी हो, असल जीवन में उससे ईश्वर का सम्बन्ध आँखों से नहीं दिखता। इस सम्बन्ध के लिए भी देखने वाले अपनी मान्यता बना लेते हैं। आस्तिक उसे देख अपनी खुदकी श्रद्धा को बढ़ाते हैं और नास्तिक उसे मूर्खता मानते हैं। इस सम्बन्ध को भौतिक विज्ञान की दृष्टि से नहीं देखा जा सकता।
एक प्रार्थना याद आती है मुझे:
हे सकल जगत के उत्पत्तिकर्ता समग्र ऐश्वर्य युक्त सभी सुखों के दाता परमेश्वर, आप कृपा करके हमारे सारे दुर्गुण, दुर्व्यसन, और दुखों को दूर कर दीजिये। और कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव, एवं पदार्थ हैं, वे सब हमें प्राप्त कराईये।
यहाँ एक आस्तिक ईश्वर से अपने गुणों (अच्छी आदतों) को बढ़ाने और दुर्गुणों (बुरी आदतों) को घटाने की प्रार्थना कर रहा है।
लेकिन क्या ये प्रार्थनाएँ सूनी जा रहीं हैं? क्या कहीं दिखता हैं इसका प्रमाण?
हाँ। अक्सर।
लेकिन कई आस्तिकों को अपने गुणों को न बचाते हुए और दुर्गुणों में गिरते हुए भी देखा गया है!
नीचे दिए इन दो उदाहरणों से बात बढ़ाते हैं।
एक अच्छी आदत वाले की बात:
एक युवक बड़ा ही फुर्तीला और कसरत व्यायाम से शरीर को स्वस्थ रखने वाला था। ईश्वर से प्रार्थना भी करता था की मैं ऐसा ही मेहनती बना रहूँ। लेकिन उसकी नौकरी ऐसी लगी की, उसे शरीर पर ध्यान देने का समय ही नहीं मिलता था। ऑफिस के चर्बी भरे से खाने से तो अब वो मोटा होने लगा था। काम की व्यस्तता में कैसे दिन, महीन और साल बीत गए पता ही नहीं चला। वो अब दिल के रोग से परेशान है। ईश्वर ने उसके शरीर पर ध्यान देने के लिए कुछ नहीं किया। प्रार्थना निरर्थक गयी!
एक बुरी आदत वाले की बात:
एक आदमी शौक में शुरू के गयी सिगरेट के आदत से कई सालों से परेशान था। उसे पता था की इस तरह वो कैंसर की ओर बढ़ रहा था। वो ईश्वर से प्रार्थना करता था की हे ईश्वर मेरी ये लत छूट जाए। पर न ये लत छूटी न कैंसर का खतरा टला। आज कैंसर ने ही उसकी सिगरेट की आदत छुड़ाई। ईश्वर ने इसे भी सिगरेट से दूर रहने के लिए कुछ नहीं किया? प्रार्थना निरर्थक गयी!
कर्मफल के कारण?
या इसलिए की ईश्वर हमारे कामों में दखल नहीं देता, फ्री विल?
पहला व्यक्ति अगर प्रार्थना के अलावा या बजाय, रोज़ 20 मिनट का समय कसरत निकालता और चर्बी के खाने से दूर रहता, तो शायद उसे ये दिल का रोग नहीं मिलता।
दूसरा व्यक्ति अगर कोई नशा मुक्ति थेरेपी लेता और निकोटीन च्युइंग गम की मदद लेता, तो अपनी इच्छा शक्ति से सिगरेट छोड़ सकता था। कैंसर से बच सकता था।
चाहे प्रार्थना हो या न हो, काम पुरुषार्थ ही आया। मनुष्य का खुद का परिश्रम।
फिर ईश्वर कब काम आया?
इस लेख का विषय ये ही है - हमारे जीवन में ईश्वर की भूमिका।
जब सब कुछ हमें ही करना है और भोगना है, तो ईश्वर से नाता रखने का कोई अर्थ है?
और हम देखते हैं की दुनिया में आस्तिक ही नहीं, नास्तिक भी पनप रहे हैं। ईश्वर से सम्बन्ध के बिना ही।
हम कैसा सम्बन्ध रखें ईश्वर से? या रखें भी या नहीं?