Friday, January 23, 2009

Vishvaas (Dec23, 2008)

विश्वास

मैं... एक आर्य समाजी! अंधविश्वास, मूर्तिपूजा और पाखण्ड चिड़ने वाला।
पर किस 'विश्वास' को अंधविश्वास कहते हैं, कभी कभी दुविधा में पड़ जाता हूँ।
एक उदहरण -
एक डर, असफलता का, हाल ही में मुझ पर हावी हो गया था। जानता था कर्मफल का नियम। मेरे कर्म ही सफलता या असफलता का फल बनकर आएँगे। फिर भी उस डर से जीत नहीं पा रहा था। असफलता निश्चित लग रही थी।
मेरा किसी लोकल देवी-देवता में विश्वास नहीं, मेरे माता-पिता का बहुत है। वे आर्यसमाजी नहीं हैं ना!
पर मेरा माता-पिता से बहुत प्यार है।
उन्होंने कुछ गेहूँ के दाने दिए मुझे जो वे किसी महामाया-माता से मुझे असफलता से बचाने वाले रक्षा कवच के रूपमें लाए थे।

मैंने सहर्ष लिए। उनके लिए।
असफलता का डर इन गेहूँ के दानों के प्रति आस्थावान तो नहीं बना रहा था, पर कोई प्रतिक्रिया भी नहीं देने दे रहा था।
महामाया-माता के कहे अनुसार एक एक गेहूँ का दाना खाकर दिन बिताए।
परिणाम वाला दिन आया। असफल होने से बच गया। डर खत्म हुआ।
किसे धन्यवाद दूँ? कृतघ्न नहीं हूँ। मेरे लिए कृतज्ञता की भावना अपरिहार्य है।
किसे धन्यवाद दूँ? आर्य समाज वाले मेरे निराकार इश्वर को? या महामाया माता के उन गेहूँ के दानों को? या किसीको नहीं, कर्म फल ही तो है।

लेकिन इस बात को यहीं छोड़ देता हूँ। ज़्यादा विचार या पड़ताल नहीं करूँगा।
इस बार भी।
तर्कों पर चलने वाला उन ‘गेहूँ के दानों’ को कहीं और भी आज़माना चाहेगा।
पर नहीं करूँगा ऐसा।
इस बार भी।
बचपन की तरह।
बचपन में रात के समय पास वाले मोहल्ले के शमशान के पास से कभी अकेले गुज़रने की हिम्मत नहीं होती थी।पर अपने पिता का हाथ पकड़ कर उस गली से निडर होकर गुज़रा।
क्या सोचता था कि शमशान के भूत, जिनसे मैं डरता था, जब आएँगे तो मेरे पिता उन्हें मार कर भगा देंगें?

अब क्या बड़प्पन की मेरी अक्ल, जो भूतों के अस्तित्व को मानने से इनकार करती है, पिता की उस 'शक्ति' को गौण कर दे, जिसने मुझे अभय दिया था?

वो असफलता का डर, भूत था।
वो गेहूँ, पिता का साथ।
ये बड़प्पन, कर्मफल की मान्यता है।
ये गेहूँ के महत्त्व पर विचार करने से इनकार, उस बचपने में लौटने की मेरी इच्छा है।
या शायद, मेरा बचपना ही।

(Dec23, 2008)

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