Monday, April 5, 2010

बचपन का मैं (Feb 28, 2010)

कितने दिनों बाद तो घर आया वो भी तीन ही दिन के लिए। होली पर बिना बताये घर पहुंचा तो मम्मी पापा बहुत खुश हुए। उनके आंसुओं में दिख रहा था ये।
पांच साल हो गए घर से दूर हुए। पहले पढ़ाई, अब नौकरी।
लेकिन कैसे सब कुछ याद है जैसे कल ही की बात हो।
मैं घर से दूर के माहौल के कारण मुझमें आये बदलावों को घर पर दिखने नहीं देता। घर पर ऐसे रहता हूँ, जैसे हमेशा से घर पर ही रहता था।
याद है, बचपन में मम्मी पोछा लगाते वक़्त मेरे इधर उधर घूमने पर डाँटती थीं। मैं फिर भी पोछा लगाये फ़र्श पर शरारत करता घूमता रहता। मम्मी फिर और डाँटती।

आज रसोई में मम्मी जब पोछा आगा रहीं थीं, तो मन में आया बचपन की तरह शरारत करूँ। मैं रसोई में घुमने लगा, सोचा मम्मी पहले की तरह डाटेंगी। पर वो तो रोने लगीं।
मैं थोडा बदल गया हूँ, पर अपने बदलावों को छिपा पाता हूँ।
मम्मी भी बदल गयीं हैं, पर अपने बदलावों को ज़्यादा देर छिपा ना सकीं।
अपने कलेजे के टुकड़े से दूर रहते रहते थोड़ी उदास रहने लगीं हैं।
बचपन के गुड्डू को देख, खुद को रोक नहीं पायीं,
और रोने लगीं।

4 comments:

  1. mujhe bhi rona aa gaya ...

    kaisa hai tu ?

    mail mein your number...

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  2. कितनी सरलता से बात कह दी तुमने ....
    आँखें बहा दीं..उफ़...!!!
    जियो बच्चे ... जियो...

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  3. ये पंक्तियाँ कितनी सहजता से दिल को छूती हुई आँखें नम कर जाती हैं ... अति सुंदर !

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  4. बेहद भावपूर्ण। ऐसा लगा जैसे आप अपनी नहीं मेरी बात कर रहे हो।

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