Sunday, May 26, 2013

रूप बदलते "मेले" - भाग-1

बीते ज़माने की खासियत थे मेले। झूले, खिलौने, स्वादिष्ट पकवान, खेल और रौशनी की सजावट। मेले में जाने का हर किसी को बहुत चाव रहता था।
ये भारत ही नहीं विश्व के अधिकतर देशों में होते रहे हैं। स्विट्ज़रलैंड, स्पेन, इंग्लैंड, इटली, आदि में सड़कों पर हँसते गाते ढोल बजाते ये कार्निवल मेले निकलते थे। चीन में नाचते ड्रैगन, जलती लालटेनें और गाते लोग मेले का एक अद्भुत रूप दिखाते थे। ये चकाचौंध में मैसूर के मेले से कम न होते थे।
और अब....
आज कहाँ वो मेले! अब कहाँ वो चाव मेले में जाने का, खाने का, खुला झूलने का, खिलौने खरीदने का!
छोटे शहरों में तो फिर भी कुछ एक मेले लग जाते हैं आज, लेकिन बड़े शहरों में तो जगह ही कहाँ ऐसा मेला लगाने की।
अरे लेकिन....
बड़े शहरों में तो आजकल "एम्यूजमेंट पार्क्स" होते हैं। वहाँ झूले होते हैं, चॉकलेट्स होतीं हैं, कैंडी होती है, खिलौने होते हैं। और ये सब एक छोटे से मॉल में!
ये आज के मेले ही तो हैं।
मेले कभी ख़त्म नहीं होंगे। लोग बदलेंगे, समय बदलेगा, ज़मीन बदलेगी, मौसम बदलेगा, नाम बदलेगा, लेकिन मेले ख़त्म नहीं होंगे।
बस रूप बदलते रहेंगे ये मेले....

3 comments:

  1. सत्य कहा , स्वरुप भले बदल जाए पर समूह में उत्साह मनाने की ये रवायत कभी कभी नहीं होगी.. यदि कभी ख़तम हुई तो वह दिन सामाजिक आस्तित्व का अंतिम दिन होगा,क्योंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, यह सत्य जो विखंडित हो जायेगा ...

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    1. नमस्ते आंटी.. मनुष्य जीवन के इस पहलु पर बहुत अच्छा विचार रखा आपने.. इस लेख के भाग-2 को भी देखिएगा।

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  2. एक फिल्मी गीत - ये जिन्दगी के मेले -दुनिया में कम न होंगे - अफसोस हम न होंगे - के मूल कथ्य को समेटते हुए आपका यह छोटा सा आलेख प्रीतिकर है - शुभकामनाएँ।
    सादर
    श्यामल सुमन
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